रायटोक्रेट कुमारेन्द्र
कभी हसरत थी आसमां को छूने की, अब तमन्ना है आसमां के पार जाने की.
19 नवंबर 2025
Men's Day पर महिलाओं की बधाई, शुभकामना??
16 नवंबर 2025
अराजकता पैदा करने का मंसूबा?
‘देश के युवा, देश के
छात्र, देश के जेन-जी संविधान को बचाएँगे. लोकतंत्र की रक्षा
करेंगे और वोट चोरी को रोकेंगे. मैं उनके साथ हमेशा खड़ा हूँ. जय हिन्द.’ सोशल
मीडिया प्लेटफ़ॉर्म एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर ये विचार पोस्ट करने वाला व्यक्ति
कोई आम नागरिक नहीं बल्कि लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी हैं. 18 सितम्बर
2025 को पोस्ट इस विचार का उत्प्रेरक नेपाल की अराजकता के लिए जिम्मेदार जेन-जी
पीढ़ी को माना जा रहा है. इस पोस्ट के माध्यम से उन्होंने न केवल देश के युवाओं को
उकसाने का काम किया बल्कि वोट चोरी जैसे मुद्दे के द्वारा संवैधानिक संस्था पर
प्रश्नचिन्ह लगाने का काम किया है.
ईवीएम का मुद्दा हो या अब वोट चोरी का, इनके द्वारा राहुल गांधी किसी तरह की
सुधारवादी व्यवस्था का सहयोग नहीं करते बल्कि निर्वाचन आयोग पर सवालिया निशान लगाते
हैं. भाजपा की जीत पर ईवीएम से छेड़छाड़ करने, उसे हैक कर लेने का आरोप लगा देना तथा विपक्षी दलों की जीत को
लोकतंत्र की जीत बताने लगना आम बात हो गई है. ईवीएम से छेड़छाड़ किये जाने के आरोप भाजपा
पर लगातार लगाते रहने के बाद भी विपक्षी दलों द्वारा उसे सही सिद्ध न कर पाने से
मतदाताओं ने इसके पीछे की मंशा को भली-भांति समझ लिया. ये सहज रूप में समझ में आता
है कि विपक्षी दलों द्वारा अपनी हार का ठीकरा ईवीएम और निर्वाचन आयोग के ऊपर फोड़कर
लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को कटघरे में खड़ा करना रहा है. कुछ इसी तरह का काम अब
राहुल गांधी करते नजर आ रहे हैं वोट चोरी के नाम पर.
बिहार में पहले चरण के मतदान से ठीक एक दिन पहले राहुल गांधी ने प्रेस कांफ्रेंस के द्वारा हरियाणा
में वोट चोरी होने का आरोप लगाया. उनका कहना था कि पिछले साल हरियाणा के विधानसभा चुनाव
में 25 लाख फर्जी वोटों का इस्तेमाल किया गया जो कुल वोटों का लगभग 12.5 प्रतिशत है.
निर्वाचन आयोग और भाजपा पर मिलीभगत का आरोप लगाने वाले राहुल का मानना है कि इसके
चलते कांग्रेस हार गई. वोट चोरी के सन्दर्भ में उनके द्वारा एक महिला, जो ब्राजील
की मॉडल निकली, की
अनेकानेक फोटो के माध्यम से अपने आरोपों को सही साबित करने का भी प्रयास किया गया.
यहाँ एक बात समझ से परे है कि यदि राहुल गांधी को लगता है कि भाजपा और निर्वाचन
आयोग की मिलीभगत से वाकई वोट चोरी जैसा कदम उठाया जाता है तो इसके समाधान के लिए
वे अदालत की मदद क्यों नहीं ले रहे? उनको कम से कम इसका भान
तो होना ही चाहिए कि इसी देश में 12 जून 1975 को एक ऐतिहासिक फैसले में न्यायमूर्ति
जगमोहनलाल सिन्हा ने उनकी दादी इंदिरा गांधी को चुनावी कदाचार का दोषी पाया था. जिसके
चलते न्यायालय ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अमान्य घोषित करते हुए उन्हें छह साल तक
अन्य दूसरा कोई भी चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित कर दिया था. इस निर्णय के पश्चात्
लागू आपातकाल 1977 में समाप्त होने पर चुनाव सम्पन्न हुए. इन चुनावों में मतदाताओं
ने तानाशाही, चुनावी धाँधली के विरोध में न केवल कांग्रेस को बल्कि रायबरेली से
इंदिरा गांधी को भी हराया. आज संभवतः अराजकता फ़ैलाने की मंशा रखने के कारण राहुल
गांधी मतदाताओं की, न्यायालय की असल ताकत को स्वीकारना नहीं
चाह रहे हैं.
दरअसल राहुल गांधी को वोट चोरी, निर्वाचन आयोग की मिलीभगत को लेकर न्यायालय जाने से ज्यादा आसान लगता है
आरोप लगाना. इसमें न किसी तरह के सबूतों को न्यायालय में प्रस्तुत करना है और न ही
किसी तरह के तथ्यों की पुष्टि करना है. विगत वर्षों में अनेक मामलों में न्यायालय
की तरफ से उनको समझाए जाने के, सजा सुनाये जाने के दृष्टान्त
भी सबके सामने हैं मगर ऐसा लगता है जैसे उन्होंने इनसे कोई सीख नहीं लेने का मन
बना रखा है. इसके अलावा लगता है जैसे राहुल गांधी भारत में उसके पड़ोसी
देशों-पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश आदि की तरह का अराजक माहौल देखने का मंसूबा रखते हैं. यही
कारण है कि वे कभी यहाँ की लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर,
संवैधानिक संस्थाओं पर, संविधान पर आरोप लगाते हैं तो कभी
इंडियन स्टेट के नाम पर, सेना के नाम पर, आतंकियों के नाम पर, वोट चोरी के आरोपों द्वारा, जेन-जी पीढ़ी की क्रांति के रूप में अनर्गल बयानबाजी करते नजर आते हैं.
बिहार चुनावों के परिणामों ने साबित किया है कि यहाँ के मतदाताओं ने न केवल विशेष
गहन पुनरीक्षण को अपनी स्वीकार्यता प्रदान की है बल्कि राहुल गांधी के वोट चोरी के
आरोपों की भी हवा निकाल दी है. ईवीएम सम्बन्धी गड़बड़ियों में मुँह की खाने के बाद, अनेक चुनावों में लगातार हारने के
बाद अब बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण और वोट चोरी आरोपों के नकारे जाने के बाद
राहुल गांधी को स्वयं का विश्लेषण करने की आवश्यकता है. उनको अपने उन मार्गदर्शकों
का आकलन करने की आवश्यकता है जो निरर्थक मुद्दों के द्वारा उनके प्रधानमंत्री बनने
के सपने को हवा देते रहने के साथ-साथ देश को अराजकता की तरफ ले जाना चाहते हैं. उनको
ऐसे बयानवीरों से दूर रहने की आवश्यकता है जो उनके कपोल-कल्पित बयानों को
नाइट्रोजन बम, हाइड्रोजन बम साबित करने की कोशिश में राहुल
गांधी को ही मजाकिया पात्र बना दे रहे हैं.
ये बात न केवल राहुल गांधी को ही बल्कि कांग्रेस पार्टी को भी समझनी होगी कि
वे वर्तमान में लोकसभा में विपक्ष के नेता हैं और उनके तमाम अनर्गल बयान न केवल
उनकी छवि को धूमिल करते हैं बल्कि देश की राजनीति को भी विवादास्पद बनाने के
साथ-साथ देश की संवैधानिक संस्थाओं को संशय के घेरे में खड़ा करते हैं. ऐसी राजनीति
भले ही उनके सन्दर्भ में उचित हो मगर देश के लिए, लोकतंत्र के लिए, संवैधानिक संस्थाओं के
लिए कतई उचित नहीं है.
28 अक्टूबर 2025
खुराफाती पलों का बिंदास साथी
अपने पढ़ने के शौक के कारण ऐसा बहुत ही कम होता है कि कोई पुस्तक मँगवाई जाए और बिना पढ़े अलमारी में सज जाए. इसी तरह ऐसा तो बहुत कम ही पुस्तकों के साथ होता है कि आने के बाद कुछ ही घंटों में उसे चट कर दिया जाये. आज ही अपने कर्मकांडी मित्र अनुराग की पुस्तक हाथ लगी. ये बात कहने में कोई गुरेज नहीं कि आज किसी भी व्यस्तता में होते उसे छोड़कर पहला काम अनुराग के उपन्यास को पढ़ना रहता. हुआ भी कुछ ऐसा ही. कॉलेज से लौटते ही कोरियर वाले ने पुस्तक थमाई उसके बाद उसी को पढ़ने का काम शुरू हुआ.
उपन्यास की समीक्षा इस पोस्ट के बाद, अभी कुछ बातें अनुराग और अपने बारे में. 1990 में स्नातक की पढ़ाई के लिए जब ग्वालियर के साइंस कॉलेज में एडमिशन लिया तो हॉस्टल में सबसे पहली मुलाकात अनुराग से ही हुई. उस पहली मुलाकात में बहुत ही संक्षित सी बातचीत हुई मगर उसके बाद डिफ़ॉल्ट सेटिंग में इंस्टाल खुराफातों ने आजतक हमें और अनुराग को लगातार साथ बनाये रखा.
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| हॉस्टल की एक फोटो, 1991 |
हॉस्टल के बहुत से मित्र आज भी साथ हैं, बहुत से सीनियर बड़े भाई की तरह अपना आशीष बनाये हुए हैं, बहुत से जूनियर छोटे भाई की तरह जीवन से जुड़े हुए हैं. सभी भाई किसी न किसी विशेषता के कारण सबसे अलग थे, आज भी अपनी उसी विशेषता के कारण अलग हैं. अनुराग पहले दिन से ही एकदम बिंदास, जिंदादिल, बेख़ौफ़ व्यक्तित्व से भरा हुआ लगा और ऐसा आजतक है. संभवतः इसी डिफ़ॉल्ट सेटिंग के कारण स्थलीय दूरी होने के बाद भी हम दोनों अलग-अलग नहीं हो सके.
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| हॉस्टल मीट, 2017 |
बिंदास, मौजियल स्वभाव के अनुराग के साथ मिलकर कितनी-कितनी खुराफातें रची गईं कहना मुश्किल है. उसकी एक बिंदास फोटो आज भी हमारे कलेक्शन को महकाती-चहकाती है. इसे आशीर्वाद ही कहा जायेगा कि 2017 में हॉस्टल मीट के दौरान मंच से हम लोगों के वार्डन रहे चंदेल सर ने अनुराग और हमारा ही नाम लेकर हमारी शरारतों का जिक्र किया. होली के ठीक पहले अनुराग के साथ मिलकर हाथ ठेला पर बिठाकर अपने एक सीनियर को रेलवे स्टेशन छोड़ने की घटना का जिक्र हम आज तक अपने दोस्तों के बीच किया करते हैं. अनुराग को पत्र मित्र कॉलम में कुमारी अनु के नाम से मिलने वाले हजारों-हजार पत्र आज भी हॉस्टल के साथियों के बीच मौज-मस्ती का बिन्दु बनते हैं.
आज अनुराग के उपन्यास को पढ़ते-पढ़ते तीस साल से अधिक पुराना हॉस्टल का समय बार-बार उभर आता, उस समय की शैतानियाँ सामने आ खड़ी होतीं. कई-कई बार होंठों पर मुस्कान उभर आती, ख़ुशी में आँखें नम हो जातीं.
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| मौज-मस्ती, 2021 |
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| अनुराग के ऑफिस में, 2021 |
25 अक्टूबर 2025
हिंसात्मक गतिविधियों से भरा समाज
ये किसी तरह के समाज का निर्माण कर लिया हम लोगों ने? सुबह आँख खुलने से लेकर रात सोने तक
कहीं न कहीं से हिंसात्मक खबरों का आना लगा ही रहता है. इन खबरों का केन्द्र देश
ही नहीं रहता है बल्कि विश्व स्तर पर चारों तरफ से इसी तरह की खबरें सुनाई पड़ती
हैं. कहीं दो व्यक्ति आपस में लड़ने में लगे हैं, कहीं दो
परिवारों के बीच कलह मची हुई है, कहीं दो राज्यों के बीच
विवाद की स्थिति है तो कहीं दो देशों में युद्ध चल रहा है. ऐसा लगता है जैसे समाज
में चारों तरफ अशांति, हिंसा, वैमनष्यता, बैर आदि का समावेश बना हुआ है. सद्भाव, सहजता, शांति, धैर्य आदि को जैसे भुला ही दिया गया है. पारिवारिक सम्बन्धों में, रक्त-सम्बन्धियों में विभेद इस स्तर तक है कि एक-दूसरे की जान तक ले ली
जा रही है. समाज की इकाई एक व्यक्ति के दायरे से बाहर निकल कर देखें तो एक देश के
रूप में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है. विस्तारवाद की नीति के चलते, अपने वर्चस्व को, प्रभुता को थोपने की नीयत के चलते
जहाँ बड़े-बड़े देशों द्वारा छोटे-छोटे देशों को किसी न किसी रूप में अपने कब्जे में
किये जाने की मानसिकता काम करती है, वहीं महाशक्तियाँ
अप्रत्यक्ष रूप से एक-दूसरे को नियंत्रित करने की नीतियाँ निर्धारित करती हैं.
समाज की वर्तमान स्थिति यह है कि यहाँ प्रेम, करुणा, शांति, अहिंसा से अधिक बैर,
वैमनष्यता, हिंसा आदि दिखाई दे रही है. क्या कभी इस पर विचार
किया गया कि आखिर ऐसा क्या है इंसानी स्वभाव के मूल में कि उसे सदियों से प्रेम,
सौहार्द्र का पाठ पढ़ाना पड़ रहा है मगर
वह सिर्फ और सिर्फ हिंसा की तरफ ही बढ़ता जा रहा है? आये दिन खबरें मिलती हैं मासूम बच्चियों के साथ
दुराचार की, उनकी हत्या की.
आये दिन देखने में आ रहा है कि प्रशासनिक अधिकारियों पर हमले किये जा रहे हैं,
उनकी जान ले ली जा रही है. लगभग
नित्यप्रति की खबर बनी हुई है किसी की हत्या, कहीं लूट, कहीं अपहरण, कहीं मारपीट.
इसे महज दो पक्षों के बीच की स्थिति कहकर विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए. गम्भीरता
से विचार किया जाये तो स्पष्ट रूप से समझ आता है कि हिंसा, अत्याचार, क्रूरता इंसानी स्वभाव का मूल है. कोई व्यक्ति वह चाहे आम नागरिक हो या फिर अधिकार
प्राप्त व्यक्ति, सभी के
मन में कहीं न कहीं एक तरह का हिंसात्मक भाव-बोध छिपा होता है. आम नागरिक अपने इसी
भाव-बोध के वशीभूत अपने आस-पड़ोस में हिंसात्मक गतिविधियाँ करता है तो वही किसी
तानाशाही मानसिकता वाला राष्ट्राध्यक्ष विस्तारवादी मानसिकता के चलते अपने आसपास
के देशों के प्रति नकारात्मक भाव रखता है.
यहाँ विचारणीय तथ्य यह है कि आदिमानव से महामानव बनने की होड़ में लगे इंसान को
लगातार प्रेम, दया, करुणा आदि का पाठ पढ़ाया जाता रहा है. उसे
समझाया जाता रहा है कि हिंसा गलत है, वह चाहे जीव पर हो, निर्जीव
पर हो, पेड़-पौधों पर हो. इंसान
को कदम-कदम पर सीख दी गई कि उसे आपस में सद्भाव से रहना चाहिए. आपसी वैमनष्यता से
उसे दूर रहना चाहिए. उसे कभी नहीं सिखाया गया कि कैसे हिंसा करनी है. उसे किसी ने
नहीं सिखाया कि कैसे दूसरे से बैर भावना रखनी है. उसे किसी भी तरीके से नहीं बताया
गया कि सामने वाले की हत्या कैसे करनी है. इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि जो पाठ
उसे सदियों से पढ़ाया जाता रहा, शिक्षकों द्वारा पढ़ाया जा रहा, परिवार द्वारा पढ़ाया जाता रहा, समाज द्वारा पढ़ाया जाता रहा इंसान उसी पाठ को कायदे से नहीं सीख पाया. इसके
सापेक्ष जिस पाठ को किसी ने नहीं सिखाया, जिसे सिखाने के सम्बन्ध में कोई संस्थान नहीं है वे कार्य उसने न केवल
भली-भांति सीख रखे हैं वरन वह उन्हें तीव्रता के साथ करने भी लगा है. ऐसा लगता है
जैसे उसने अपने आसपास तनावपूर्ण माहौल वाली दुनिया बनाने का ही संकल्प ले रखा है.
इस तरह की दुनिया में जहाँ सब कुछ स्वार्थ पर आधारित होने लगा है; जहाँ व्यक्तियों की, देशों की प्रतिष्ठा का
आधार अधिकार, उसका आर्थिक स्तर, शक्ति प्रदर्शन आदि होने लगा हो वहाँ
आपस में खाई बनना स्वाभाविक है. वैश्विक परिदृश्य में दो देशों के बीच विगत कई
वर्षों से चल रहे युद्ध,
संघर्ष इसके सशक्त उदाहरण हैं. यदा-कदा संघर्ष विराम के नाम पर चंद दिनों की शांति
भले ही देखने को मिल जाए, भले ही कोई अपनी पीठ स्वयं ही
थपथपा ले किन्तु तनाव, संघर्ष, हमला
आदि पुनः अपनी तीव्रता के साथ आरम्भ हो जाते हैं. नागरिकों के हितार्थ लिए जाने
वाले निर्णय अचानक से भुला दिए जाते हैं. ऐसी स्थिति न केवल चिंतनीय है बल्कि
भयावह भी है.
सामाजिक रूप से कितने भी प्रयास किये जाएँ किन्तु इंसानों का मूल स्वभाव बदले
बिना शांति सम्भावना की स्थिति अब संभव नहीं लगती है. वर्तमान समाज इतने खाँचों
में विभक्त हो चुका है कि उसे मानवीय समाज कहने के बजाय कबीलाई समाज कहना ज्यादा
उचित होगा. प्रत्येक वर्ग के अपने सिद्धांत हैं, अपने आदर्श हैं, अपने विचार हैं, अपनी विचारधारा है. सबकी विचारधारा, सबके आदर्श दूसरे की विचारधारा, आदर्श से श्रेष्ठ हैं. ऐसे में श्रेष्ठता,
हीनता का बोध भी इंसानी स्वभाव पर
हावी हो रहा है. समझने वाली बात है जब आक्रोश की छिपी भावना के साथ-साथ स्वयं को
श्रेष्ठ समझने और दूसरे को सिर्फ और सिर्फ हीन समझने की खुली भावना समाज में
विकसित हो रही हो तब हिंसात्मक गतिविधियों को देखने-सहने के अलावा और कोई विकल्प
हाल-फ़िलहाल दिखाई नहीं देता है. सरकार, प्रशासन, समाज, व्यक्ति सबके सब असहाय बने खुद पर हमला होते
देख रहे हैं.
21 अक्टूबर 2025
राजनीति में स्वच्छ छवि का स्वागत हो
चर्चित लोकगायिका मैथिली ठाकुर को भाजपा की सदस्यता
लेने के अगले दिन ही बिहार विधानसभा चुनाव में अलीनगर सीट से प्रत्याशी बनाया गया.
उनको प्रत्याशी बनाये जाने को लेकर अनेक तरह के तर्क-वितर्क शुरू हो गए. कोई उनकी
उम्र को लेकर टिप्पणी कर रहा है, कोई राज्यसभा में भेजे जाने की बात कर रहा है. किसी के द्वारा उनके
राजनैतिक अनुभवशून्यता का उदाहरण दिया जा रहा है तो किसी के द्वारा इसे कला के
प्रति अन्याय बताया जा रहा है. सदस्यता लेने के अगले दिन ही प्रत्याशी बनाये जाने
को जहाँ पैराशूट प्रत्याशी से तुलना की जा रही है वहीं स्थानीय प्रतिनिधियों के
साथ पक्षपात करना बताया जा रहा है. इन तमाम सारी चर्चाओं के बीच मैथिली ठाकुर के
चरित्र हनन करने सम्बन्धी तमाम मीम्स, चुटकुले सोशल मीडिया कुत्सित
मानसिकता वालों द्वारा फैलाये जाने लगे.
इन चर्चाओं के सापेक्ष कुछ बातों पर ध्यान देना ही
होगा. किसी व्यक्ति के राजनैतिक रूप से अनुभवहीन होने के तात्पर्य यह तो कतई नहीं
है कि वह राजनीति में असफल हो जायेगा. वह समाजहित में, जनहित में कार्य नहीं कर सकेगा. देखा
जाये तो ये सारी बातें मैथिली की उम्र, कला, अनुभवहीनता आदि के कारण नहीं उपजी हैं बल्कि इनके पीछे भाजपा द्वारा
स्थानीय कार्यकर्ताओं को, जनप्रतिनिधियों की उपेक्षा करना
है. यह सही हो सकता है कि किसी नए व्यक्ति को पार्टी का सदस्य बनने के अगले दिन ही
प्रत्याशी बनाकर उन तमाम पुराने कार्यकर्ताओं, नेताओं की
उपेक्षा ही है जो विगत लम्बे समय से अपनी प्रत्याशिता की राह बना रहे थे.
एकबारगी मान भी लिया जाये कि यह भाजपा का गलत कदम है
कि एकदम नए व्यक्ति को पुराने कार्यकर्ताओं, जनप्रतिनिधियों पर प्रभावी बना दिया गया तो क्या इस बात पर ही
किसी भले व्यक्ति को, कलाकार को सक्रिय राजनीति में नहीं
उतरने दिया जाना चाहिए? राजनैतिक क्षेत्र को लेकर समाज की
विडम्बना यही हो गई है कि एक तरफ लोग राजनीति के गन्दी होने की चर्चा अनेकानेक
मंचों से करते हैं मगर उसी के सापेक्ष भले, योग्य व्यक्तियों
को सक्रिय राजनीति में देखना भी नहीं चाहते. राजनीति गन्दी है, संसद डाकुओं-लुटेरों से भर गई है, संविधान में हमारा विश्वास नहीं जैसे जुमले
आये दिन सुनने को मिल जाते हैं. कविता का मंच हो, साहित्य-विमर्श हो या धारावाहिक-फ़िल्मी कार्यक्रम हो सभी में राजनीति को
बेकार बताया जाता है. आज राजनीति को गाली देना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता माना जाता
है; खुद को जागरूक
बुद्धिजीवी समझना होता है.
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि वर्तमान
में बहुतायत जनप्रतिनिधि अपने दायित्वों से मुकरते जा रहे हैं. राजनीति में
पदार्पण करने वाला अत्यंत अल्पसमय में ही बलशाली होकर सामने आ जाता है. कई-कई
अपराधों में लिप्त लोग भी माननीय की श्रेणी में शामिल होकर जनता के समक्ष रोब
झाड़ते दिखाई देते हैं. राजनीति की वर्तमान व्यवस्था को दोष देने के पूर्व यदि हम
अपने क्रियाकलापों, अपनी
जागरूकता पर निगाह डालें तो हम ही सबसे बड़े दोषी नजर आयेंगे. हमारे देश की संसद और
तमाम विधानसभाओं में एक निश्चित समयान्तराल के बाद चुनाव होता है. चुनाव का
निर्धारित समय किसी लिहाज से टाला नहीं जा सकता है और सदन की निर्धारित सीटों को
अपने निश्चित समय पर भरा ही जाना है. ऐसे में यदि अच्छे लोग उन्हें भरने को आगे
नहीं आयेंगे तो जो भी सामने आयेगा वही आने वाले निर्धारित समय के लिए सदन का
निर्वाचित सदस्य होगा. ऐसी स्थिति में दोष हमारा ही है कि हमने स्वयं अपने को
अच्छा माना भी है और राजनीति से पीछे खींचा भी है.
देश, प्रदेश को संचालित करने वाली सबसे अहम् प्रक्रिया को, सबसे महत्त्वपूर्ण कदम राजनीति को आज उससे दूर होते जा रहे प्रबुद्ध वर्ग
ने नाकारा साबित करवा दिया है. राजनीति को सबसे निकृष्ट कोटि का काम सिद्ध करवा
दिया है. इसी कारण गली-चौराहे-नुक्कड़ पर खड़े लोग राजनीतिक चर्चा में तो संलिप्त
दिखाई पड़ जाते हैं, उसकी अच्छाइयों से ज्यादा उसमें बुराइयों
को खोजने का काम करते हैं, उसमें सक्रिय ईमानदार लोगों से
अधिक उसमें सक्रिय भ्रष्ट-माफिया लोगों की अधिक चर्चा करते हैं. इसका दुष्परिणाम
ये होता है कि राजनीति के नकारात्मक प्रचार का एक से बढ़ते हुए अनेक तक चला जाता है
और समाज की एक सोच ये बनती चली जाती है कि वर्तमान में राजनीति से अधिक घटिया,
अधिक बुरी कोई चीज नहीं. राजनीति से प्रबुद्धजनों के मोह-भंग ने,
राजनीति के प्रति होते नकारात्मक प्रचार ने, राजनीति
के प्रति अपनी भावी पीढ़ी को प्रेरित न कर पाने ने राजनीति के विरुद्ध नकारात्मक
माहौल बना दिया है.
आज प्रत्येक मतदाता राजनीति पर बड़ी लम्बी-लम्बी
चर्चा करने का दम रखता है मगर अपनी संतानों को राजनीति में आने को प्रेरित नहीं
करता. उसके द्वारा राजनीति में आती गिरावट पर चिंता व्यक्त की जाती है मगर उसके
उसमें सुधार के लिए भावी पीढ़ी को आगे नहीं किया जाता. ऐसे लोगों की बातों में
राजनीति की गिरावट दिखती है मगर इनके मन में बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी के लुभावने
पैकेज के सपने सजे होते हैं. इस तरह की चर्चाओं के चलते ही अच्छे लोग न राजनीति
में आते हैं न ही चुनावों में उतरते हैं. इस तरह की स्थिति के धीरे-धीरे बढ़ने से
भले लोग राजनीति से, चुनावी
मैदान से बाहर हैं और अपराधी किस्म के लोग राजनीति में प्रवेश करते जा रहे हैं. राजनीति
में आती जा रही गंदगी सिर्फ बातें करने से, अनावश्यक बहस
करने से दूर नहीं होने वाली. यदि इसे साफ़ करना है, राजनीतिक
गंदगी को मिटाना है तो राजनीति की बातें नहीं वरन राजनीति करनी होगी. आज के लिए न
सही, कल के लिए; अपने लिए न सही, अपनी भावी पीढ़ी के लिए लोगों को जागना होगा.
हाँ, मैथिली ठाकुर जैसे लोगों का राजनीति में, चुनावों
में उतरना सुखद संकेत है लेकिन ऐसे व्यक्तियों को और राजनैतिक दलों को इस बात का
ध्यान देना चाहिए कि ऐसे भले लोग, स्वच्छ छवि के लोग, कलाकार आदि पहले कुछ वर्ष जनता के बीच गुजारें, जनहित के कार्यों में
अपना समय दें. इससे जहाँ नागरिकों के बीच उनकी छवि पुष्ट तो होगी ही, अपने दल में भी उनके प्रति एक विश्वास पैदा होगा.






