05 अगस्त 2025

फटकार के बाद भी नहीं रुकेंगे विवादित बोल

सर्वोच्च अदालत ने एक बार फिर लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी को उनकी टिप्पणी के लिए फटकार लगाई है. राहुल गांधी द्वारा भारत-चीन सेनाओं के बीच हुई झड़प को लेकर टिप्पणी की गई थी कि चीनी सैनिक भारतीय सैनिकों को पीट रहे हैं. इस बयान पर बॉर्डर रोड ऑर्गनाइजेशन के पूर्व निदेशक उदय शंकर श्रीवास्तव ने राहुल गांधी के खिलाफ आपराधिक मानहानि का केस दर्ज करवाया था. इस मामले में हो रही सुनवाई पर न्यायालय ने कहा कि एक भारतीय विश्व में सबसे वीर भारतीय सेना के विषय में ऐसा कैसे कह सकता है कि वो चीन से पिट रही है. राहुल गांधी के साथ इस तरह की घटना तीसरी बार हुई है जबकि उनको न्यायालय से फटकार मिली है. चीनी सैनिक भारतीय सैनिकों को पीट रहे हैं के बयान के साथ-साथ उनको इस बात के लिए भी फटकारा गया है कि चीन ने भारत की दो हजार वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर रखा है. इस बयान पर अदालत ने उनसे सवाल किया कि आखिर उन्हें यह कैसे पता चला कि चीन ने भारत की जमीन पर कब्जा कर लिया है?

 

राहुल गांधी के द्वारा इस तरह का विवादित बयान पहली बार नहीं दिया गया है. पिछली लम्बी समयावधि में उनके द्वारा दिए गए अनेकानेक बयानों को देखकर लगता है कि इस तरह की बयानबाज़ी करना जैसे उनकी आदत बन चुका है. स्मरण रहे कि इससे पहले एक मामले में उनको सजा भी सुनाई गई थी जिसके चलते राहुल गांधी को लोकसभा की सदस्यता भी गँवानी पड़ी थी. राहुल गांधी ने अप्रैल 2019 कर्नाटक में एक चुनावी रैली में कहा था कि ललित मोदी, नीरव मोदी, नरेन्द्र मोदी का सरनेम कॉमन क्यों है? सारे चोरों का सरनेम मोदी क्यों होता है? इस बयान पर समूचे मोदी समुदाय को बदनाम करने का आरोप लगाते हुए उनके खिलाफ भाजपा नेता पूर्णेश मोदी ने आपराधिक मानहानि का केस दर्ज कराया था. इसी मामले में राहुल गांधी को दो साल की सजा सुनाई गई थी, जिसके चलते उनको लोकसभा की सदस्यता छोड़नी पड़ी थी. इसी तरह नवम्बर 2022 में भारत जोड़ो यात्रा के दौरान इस बयान पर कि सावरकर ने अंग्रेजों को माफीनामा लिखकर महात्‍मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल जैसे स्वतंत्रता सेनानियों को धोखा दिया था, राहुल गांधी को वीर सावरकर के खिलाफ आपत्तिजनक बयानबाजी करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की फटकार सुननी पड़ी थी.

 



अपनी बयानबाज़ी के कारण, विवादित बोलों के कारण राहुल गांधी को लगातार न्यायालयों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं, सर्वोच्च न्यायालय से डाँट भी खानी पड़ रही है, इसके बाद भी उनके विवादित बयान देने सम्बन्धी आदत में किसी तरह की कमी नहीं आई है. राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद में कथित दलाली को लेकर की गई गलतबयानी के कारण उनको सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा देकर माफी माँगनी पड़ी थी. राहुल गांधी को समझना चाहिए कि वे वर्तमान में लोकसभा में विपक्ष के नेता हैं और ऐसे में उनका दायित्व बनता है कि वे जनहित मामलों पर, सरकार की गलत नीतियों पर अपनी बात को संसद में खुलकर रखें. बजाय ऐसा करने के उनके द्वारा कभी संसद के भीतर, कभी संसद के बाहर तो कभी सोशल मीडिया पर अनावश्यक टिप्पणी की जाती है. उनके ऐसा करने में वे दलगत विचारधारा का विरोध करते-करते देश का विरोध करने लगते हैं. अपनी इस बयानबाज़ी में वे सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ खुलकर बोलने की बजाय प्रधानमंत्री के लिए भद्दी, अपमानजनक भाषा-शैली का प्रयोग करने लगते हैं.

 

भारत जोड़ो यात्रा के बाद कांग्रेस और उसके वरिष्ठ नेताओं द्वारा राहुल गांधी को एक परिपक्व नेता के रूप में, जिम्मेदार पदाधिकारी के रूप में प्रतिष्ठित किया जाने लगा था. इसके पीछे की रणनीति उनको प्रधानमंत्री पद के लिए स्वीकार्य बनाना, नरेन्द्र मोदी के सापेक्ष स्थापित करना रहा है. उनके विवादित बयानों के बाद दर्ज मामलों, न्यायालयों के रुख, सर्वोच्च न्यायालय की फटकारों के शुरूआती मामलों के बाद ऐसा समझा गया था कि राहुल गांधी अब सँभलकर बयानबाज़ी करेंगे मगर उनके विवादित बोलों को देखकर लगता है कि उन पर अदालतों के बर्ताव का कोई असर नहीं हुआ है. ऐसी स्थिति में अब यह सम्भावना कम ही है कि सर्वोच्च न्यायालय की वर्तमान फटकार के बाद राहुल गांधी भविष्य में राष्ट्रीय हितों पर बात करना पसंद करेंगे, विवादित बोलों से बचने की कोशिश करेंगे. ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है क्योंकि विगत कई वर्षों के उनके व्यवहार, बर्ताव, भाषा-शैली को देखकर लगता है कि वे अभी भी राजशाही मानसिकता से ग्रसित हैं. उनके द्वारा भले ही अपने भाषण में कहा गया हो कि वे राजा नहीं बनना चाहते, इस तरह की शब्दावली को पसंद नहीं करते मगर उनकी भाषा-शैली, हाव-भाव, बयानबाज़ी किसी भी रूप में राजशाही अंदाज से कम नहीं.

 

पाकिस्तान और चीन को पसंद आने वाले बयान देना, ऑपरेशन सिन्दूर पर सवाल उठाना, डोकलाम विवाद के समय चीनी राजदूत से मिलना, ब्रिटेन और अमेरिका में भारतीय लोकतंत्र का अनादर करना, लोकसभा में चुनाव आयोग पर आरोप लगाते हुए उसे धमकी देना, अमेरिकी राष्ट्रपति के बयानों का समर्थन करते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था को मृत बताना आदि ऐसे मामले हैं जो राहुल गांधी के बयानों की दशा-दिशा निर्धारित करते हैं. अब जबकि सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद प्रियंका गांधी सहित उनके अनेक समर्थकों द्वारा न्यायालय की टिप्पणी को निशाना बनाया जा रहा है तब लगता नहीं कि राहुल गांधी के बर्ताव, विशेष रूप से उनकी भाषा-शैली में किसी तरह का बदलाव होगा. संभवतः उन्होंने अपना मन बना रखा है कि वे राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध, प्रधानमंत्री के विरुद्ध विवादित बयानबाज़ी करते ही रहेंगे, इसके लिए भले ही उन पर कानूनी कार्यवाही होती रहे, भले ही न्यायालय से फटकार लगती रहे.

 


01 अगस्त 2025

प्रेमचन्द का इस्लामिक तुष्टिकरण

आये दिन चर्चा होती है फिल्मों में तुष्टिकरण के सम्बन्ध में. नायक को हिन्दू देवी-देवताओं से नफरत होती है पर 786 के बिल्ले पर विश्वास होता है. साधु-संत ढोंगी दिखाए जाते हैं मगर मौलवी-मौलाना विश्वासी होते हैं. ऐसी अनेकानेक घटनाएँ हैं, अनेकानेक फ़िल्में हैं. गौर करियेगा, ये फ़िल्मी बातें आज़ादी के बहुत बाद की हैं. किसी दौर में तो मुस्लिम अभिनेताओं को भी अपना स्थान बनाये रखने के लिए हिन्दू नाम अपनाने पड़े थे. बहरहाल, फिल्मों में इस तरह की हरकतें आज़ादी के बहुत बाद शुरू हुईं जबकि हिन्दू पात्र खलनायक और मुस्लिम पात्र नायक दिखाए गए. हिन्दू आस्था को ढोंग बताया गया और इस्लामिक पद्धति को स्वीकारा गया.

 



आज़ादी के बहुत पहले 1933 में एक कहानी प्रकाशित हुई थी ईदगाह, आप सबने पढ़ी होगी. लेखक हैं इसके प्रेमचन्द. गौर करियेगा, इस कहानी में हामिद दया का मानक बनता है, अपनी दादी के लिए चिमटा खरीदता है. आखिर ऐसा पात्र हिन्दू भी गढ़ा जा सकता था लेकिन प्रेमचन्द ने नहीं गढ़ा. प्रेमचन्द ने हिन्दू पात्र में रचा घीसू और माधव को, कहानी को (उपन्यास) नाम दिया कफ़न. जिस-जिसने इसे पढ़ा होगा वे अंदाजा लगा सकते हैं कि किस तरह का हिन्दू पात्र रचा गया. ऐसा उस लेखक द्वारा किया गया जिसे उपन्यास सम्राट कहा गया. जिसकी कोई फंडिंग इस्लामिक देशों से नहीं थी. समझना कठिन नहीं कि हिन्दू विरोधी नैरेटिव बरसों से बहुत ही सहजता के साथ चलाया-फैलाया जाता रहा है.

 


29 जुलाई 2025

समाज की कड़वी हकीकत है बाल श्रम

ऐसे दृश्य हम सबकी आँखों के सामने से आये दिन गुजरते ही होंगे जबकि छोटे-बड़े व्यापारिक संस्थानों, दुकानों, ढाबों आदि में बच्चे काम कर रहे हैं. कहीं कोई चाय-पानी पिलाने का काम कर रहा है, कहीं कोई झाड़ू-पोंछा करने का काम कर रहा है. सामान्य रूप में इस स्थिति को बाल श्रम के रूप में जाना जाता है. कृषिकार्य, पारिवारिक व्यापार में मदद, होटल, ढाबों आदि में बच्चों को जबरिया काम पर लगा दिया जाता है. कई बार इन बच्चों से बलपूर्वक भी काम लिया जाता है. ऐसा उस स्थिति में सहजता से होता दिख रहा है जबकि बाल श्रम ( निषेध एवं विनियमन) संशोधन बिल 2016 पारित हो चुका है. इसके पश्चात् बाल श्रम के साथ-साथ किशोरों को भी श्रमिक सम्बन्धी कार्यों में लगाये जाने को प्रतिबंधित करने के सम्बन्ध में बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) संशोधन नियम 2017 पारित किया गया. यह संशोधन भारत में बाल और किशोर श्रम को समाप्त करने के उद्देश्य से कानूनी ढाँचे को मजबूत करने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है. इसके द्वारा नियमों में बाल श्रम के स्थान पर बाल एवं किशोर श्रम शब्द जोड़ा गया तथा व्यापक आयु वर्ग को मान्यता दी गई. यहाँ बाल श्रम का सन्दर्भ ऐसे कार्यों से है जिसमें कार्य करने वाला व्यक्ति कानून द्वारा निर्धारित आयु सीमा से छोटा होता है. इसको कई देशों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने बच्चों का शोषण करने वाला माना है.

 



भारत में बाल श्रम की समस्या दशकों से प्रचलित है. सरकारें लगातार इसके उन्मूलन हेतु चिन्तित दिखाई देती हैं. देश के संविधान का अनुच्छेद 23 खतरनाक उद्योगों में बच्चों के रोजगार पर प्रतिबंध लगाता है. भारत सरकार द्वारा बाल श्रम की समस्या को समाप्त करने हेतु नियमित रूप से क़दम उठाए गए हैं. 1986 में बाल श्रम निषेध और नियमन अधिनियम पारित किया गया. इसके अनुसार खतरनाक उद्योगों में बच्चों की नियुक्ति निषिद्ध है. इसी तरह वर्ष 1987 में राष्ट्रीय बाल श्रम नीति बनाई गई थी. इसके बाद भी देश में बाल श्रमिकों की बड़ी संख्या है. इन बाल श्रमिकों में अधिकतर घरेलू नौकर, ग्रामीण और असंगठित क्षेत्रों में, कृषि क्षेत्र में कार्य करते हैं. इन सामान्य से कार्यों के अलावा खतरनाक और जोखिमयुक्त माने जाने वाले उद्योगों जैसे बीड़ी बनाना, गलीचा बुनाई, चूड़ी निर्माण, काँच उद्योग, चमड़ा, प्लास्टिक का सामान निर्माण, विस्फोटक आदि में भी कम उम्र के बच्चे लगे हुए हैं. भारत की जनगणना 2011 के अनुसार 5-14 वर्ष की आयु वर्ग के लगभग एक करोड़ बच्चे कार्यरत हैं जिनमें से लगभग 80 लाख बच्चे ग्रामीण क्षेत्रों में कृषक और खेतिहर मजदूरों के रूप में कार्य करते हैं. 

 

किसी अधिनियम के अस्तित्व में आ जाने भर से बाल श्रम को रोका जाना सम्भव नहीं. ऐसा इसलिए क्योंकि समाज में अनेकानेक परिवार ऐसे हैं जिनको अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए, अपने जीवन को बचाए रखने के लिए न चाहते हुए भी अपने बच्चों को श्रमिक के रूप में कार्य करवाना पड़ता है. ऐसे परिवारों के माता-पिता के लिए बाल श्रम एक सामान्य सी प्रक्रिया होती है. इस तरह की सोच का मुख्य कारण गरीबी को माना जा सकता है. आज के दौर का यह बहुत बड़ा सच है कि विकास के बहुत बड़े-बड़े दावे करने के बाद भी समाज से गरीबी को दूर नहीं किया जा सका है. आज भी बहुतायत में ऐसे परिवार हैं जिनकी बुनियादी ज़रूरतें पूरी नहीं हो पा रही हैं. ऐसे परिवारों के सामने भोजन, पानी, वस्त्र, घर, शिक्षा, चिकित्सा आदि की समस्या विकराल रूप में होती है. ऐसी स्थिति में इन परिवारों को भरण-पोषण सहित अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए अपने बच्चों को काम पर लगाना पड़ता है.  

 



देखा जाये तो बाल श्रम और गरीबी का सह-सम्बन्ध बना हुआ है. इसका दुष्प्रभाव निश्चित रूप से बच्चों के स्वास्थ्य पर तो पड़ता ही पड़ता है, उनकी शिक्षा भी नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है. जहाँ एक तरफ कुपोषण और अन्य शारीरिक बीमारियाँ आये दिन बच्चों को घेरे रहती हैं वहीं दूसरी तरफ गरीबी और बाल श्रम में संलिप्त होने के कारण बच्चों में अवसरों, शिक्षा की कमी के कारण मानसिक परेशानियाँ देखने को मिलती हैं. बाल श्रम को रोकने के लिए सरकारों द्वारा समय-समय पर अनेक कानून बनाये गए हैं. इसी तरह से बच्चों की शिक्षा व्यवस्था पर भी ध्यान देते हुए शिक्षा का अधिकार अधिनियम पारित किया गया. इस कानून के द्वारा 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिया गया है. इसके पीछे सोच यही रही है कि इस आयु-वर्ग के बच्चे शिक्षा प्राप्त कर खुद को बाल श्रम, गरीबी आदि के चंगुल से मुक्त कर सकें. इसके बाद भी स्थितियों को सुखद नहीं कहा जा सकता है.

 

एक कड़वा सच यही है कि सिर्फ कानूनों के द्वारा बाल श्रम को रोका जाना सम्भव नहीं. इसके लिए जनजागरूकता भी आवश्यक है, परिवारों की गरीबी दूर होना आवश्यक है. ऐसे में बाल श्रम को समाप्त करने के लिए समाज और सरकार दोनों को सामूहिक रूप से सक्रिय होना होगा. प्रत्येक नागरिक को संकल्पित होना पड़ेगा कि वह बाल श्रम में संलिप्त लोगों को जागरूक करेगा. बाल श्रमिकों के अभिभावकों को बाल श्रम से होने वाले नुकसान के बारे में समझाना होगा. सरकार को ऐसे अभिभावकों की आय निर्धारण सम्बन्धी कदम उठाने होंगे. बच्चों को स्कूली शिक्षा के साथ-साथ गरीबी उन्मूलन की दिशा में भी प्रयास करने होंगे. समवेत प्रयासों से ही बाल श्रम को समाप्त करने की उम्मीद की जा सकती है.


23 जुलाई 2025

नशे की तरफ बढ़ते युवा-कदम

हर फ़िक्र को धुँए में उड़ाता चला गया, एक गीत की इस पंक्ति ने युवाओं को बहुत प्रभावित किया है. उनके लिए इस पंक्ति का सन्दर्भ उन्मुक्त रूप से धुँआ उड़ाना भर है. इसके वशीभूत युवाओं की बहुत बड़ी संख्या जगह-जगह कहीं छिपे रूप मेंकहीं उन्मुत भाव से धुआँ उड़ाती नजर आती है. ऐसे युवाओं को गीत की इस पंक्ति ने जितना प्रभावित किया है उतना इसके अगले भाग ने नहीं किया है. धुँए से खेलती इस पीढ़ी को मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गयावाला दर्शन याद नहीं है. रील बनाने में खोयी रहने वाली, अपने आपको स्वतंत्रता से उद्दंडता की तरफ ले जाती पीढ़ी को कतई भान नहीं है कि किसी भी गीत की पंक्तियों का अनुसरण करना और ज़िन्दगी की वास्तविकता को समझना दो अलग-अलग स्थितियाँ हैं. ज़िन्दगी को जीने के अंदाज, ज़िन्दगी को ज़िन्दगी बनाये रखने की कार्य-शैली से इतर आज का युवा नशे की दुनिया में हँसते-मुस्कुराते हुए प्रवेश कर रहा है. उसके लिए ये किसी खतरे का सूचक नहीं बल्कि एक तरह का एडवेंचर है, जिसे वह किसी भी कीमत पर पूरा करना चाहता है.

 

सामाजिक रूप से यह स्थिति चिंताजनक है कि जिस उम्र में किशोरों, युवाओं को अपने दैहिक सौष्ठव की तरफ, बौद्धिक विकास की तरफ, अध्ययन की तरफ ध्यान दिया जाना चाहिए उस उम्र में वे नशे का शौक पालने में लगे हैं. शौक-शौक में कभी-कभी ही नशे की तरफ बढ़े कदम कब उनकी मजबूरी बन जाते हैं, उनको इसकी भनक तक नहीं लगती है. शौकिया उठाये गए कदम की मजबूरी में फँसकर वे इसे ज़िन्दगी जीने का तरीका समझने लगते हैं. अपनी मस्तीअपनी दुनियाअपनी स्वतंत्रता में इनको आभास ही नहीं होता है कि वे कब ज़िन्दगी को जीने की कोशिश में ज़िन्दगी से खिलवाड़ करने लगे हैं.

 



ऐसी स्थितियों के लिए पूरी तरह से युवाओं को अथवा किशोरों को दोष देना भी उचित नहीं है. देखा जाये तो भौतिकतावादी दौड़ में ऐसे बच्चों के अभिभावक भी शामिल हैं. आधुनिकता की अंधी दौड़ में दौड़ते-दौड़ते अनुशासन का पाठ सिखाने वाले, जीवन की जिम्मेदारियों से परिचय कराने वाले अभिभावक अपने ही बच्चों के मित्र रूप में परिवर्तित हो गए. मैत्री भरे कथित वातावरण में अब बच्चों को किसी भी संसाधन की, उत्पाद की महत्ता समझाने के बजाय उसकी सहज उपलब्धता करवाई जा रही है. अनुशासन-मुक्त लाड़-प्यार में उपलब्ध संसाधनों के चलते ऐसे बच्चों को न तो धन की महत्ता समझ आती हैन समय कीन कैरियर की और न ही अपनी ज़िन्दगी की. इसी मानसिकता के कारण समाज का बहुसंख्यक युवा वर्ग गैर-जिम्मेदारी का परिचय देते हुए उद्दंड नजर आने लगा है. इसी का दुष्परिणाम है कि अधिकांश बच्चों में आपराधिक प्रवृत्ति पनप रही है, वे गलत रास्तों की तरफ बढ़ जाते हैं, नशे की गिरफ्त में आ जाते हैं.

 

नशा-मुक्त समाज की संकल्पना समाज के प्रत्येक जागरूक व्यक्ति की चाह है. इसके बाद भीनशे के दुष्प्रभाव की जानकारी होने के बाद भी युवाओं में ही नहीं बल्कि समाज में नशे के प्रति आसक्ति लगातार बढती ही जा रही है. शादी-विवाह के समारोहकिसी भी हर्ष-उमंग का अवसर होनायुवाओं की अपनी मस्ती आदि अब बिना नशे के पूरी नहीं हो पाती है. कहीं न कहीं समाज में इस तरह के नशे को स्वीकार्यता मिल चुकी है. किसी भी तरह का आयोजन होछोटे-बड़े स्तर के क्लब या होटल हों सभी में किसी न किसी रूप में नशे की उपस्थिति देखने को मिलने लगी है. बहुत सी जगहों पर खुलेआम या चोरी-छिपे ड्रग्स पार्टियाँहुक्का बार आदि जैसी संकल्पना धरातल पर देखने को मिलती है. दुर्भाग्य यह है कि ऐसे आयोजनों में बहुतायत में किशोरों का, युवाओं का सम्मिलन रहता है. आधुनिकता के परिवेश में लिपटी ऐसी पार्टियों में सिगरेट, शराब की आड़ में नशीले तत्त्वों, विभिन्न ड्रग्स की सहज पहुँच बनी होती है.  

 

नशा-मुक्त समाज की अवधारणा को पूरा करने के लिए सर्वप्रथम तो ऐसे नशीले पदार्थों की आवक पर ध्यान देने की जरूरत है; उसके स्त्रोतों को पकड़ने की जरूरत है; इनको बाज़ार में खपाने वाले तत्त्वों को खोजने की जरूरत है. इसके साथ-साथ यह भी समझना होगा कि आखिर नशे की गिरफ्त में विशेष रूप से युवा वर्ग क्यों आ रहा हैइसके लिए समाज में युवाओं कीकिशोरों की समस्याओं पर विचार करने की आवश्यकता है. औद्योगीकरणवैश्वीकरण की परिभाषा इस तरह से चारों तरफ घेर दी गई है कि सिवाय लाखों के पैकेज के युवाओं को और कुछ सूझ नहीं रहा है. आपस में बढ़ती गलाकाट प्रतियोगी भावनाजल्द से जल्द सफलता की अधिकतम ऊँचाइयों को प्राप्त कर लेने की लालसाकम से कम प्रयासों में अधिकतम प्राप्ति की चाह आदि ने युवा वर्ग को अंधी दौड़ में शामिल करवा दिया है. इस दौड़ में एक बार शामिल हो जाने के बाद उनको न तो अपना भान रहता है और न ही सामाजिकता का. इसके अलावा ग्रामीण इलाकों के युवाओं के समक्ष कार्य के अवसरों के अत्यल्प होने के कारण से अवसाद जैसी स्थिति है. लाभ केउन्नति केसमर्थ कार्य करने आदि के कम से कम अवसरों के कारण यहाँ के युवा निराश तो रहते ही हैं साथ ही महानगरों की चकाचौंध उनको हताश भी करती है.

 

सरकार कोसमाज के जागरूक लोगों को नशा मुक्ति के साथ-साथ युवाओं के लिए अवसरों की अनुकूलता बढ़ाने की आवश्यकता है. जो युवा वर्ग भौतिकता की अंधी दौड़ में फँस गया है उसको समझाने कीसँभालने की जरूरत है. यदि हम अपनी युवा पीढ़ी को सही-गलत का अर्थ समझा सकेसामाजिकता-पारिवारिकता का बोध करा सकेकर्तव्य-दायित्व को परिभाषित करा सके तो बहुत हद तक नशा-मुक्त समाज स्थापित करने में सफल हो जायेंगे. 

 


17 जुलाई 2025

गूगल अर्थ पर एक क्लिक ने खोल दी मौत की गुत्थी

गूगल अर्थ पर एक क्लिक ने खोल दी मौत की गुत्थी।

1997 की एक रात। फ्लोरिडा का रहने वाला 40 वर्षीय विलियम मोल्ड्ट (William Moldt) एक नाइटक्लब से अपने घर लौट रहा था। रात करीब 9:30 बजे उसने अपनी गर्लफ्रेंड को कॉल करके बताया कि वह घर के लिए निकल चुका है। लेकिन वह कभी घर नहीं पहुँचा। न कोई सुराग, न कोई चश्मदीद। बस एक रहस्यमय गुमशुदगी, जो अगले दो दशकों तक बिना जवाब के रह गई।

 

पर कहानी यहीं खत्म नहीं होती।

2019: गूगल अर्थ पर एक क्लिक और खुलता है 22 साल पुराना राज़

2019 में एक व्यक्ति जो पहले उस इलाके में रहता था, गूगल अर्थ पर अपने पुराने मोहल्ले को देख रहा था। वह यूँ ही नज़ारे देख रहा था, ज़ूम इन कर रहा था, जब उसकी नज़र एक तालाब पर पड़ी — और फिर, वह ठिठक गया। पानी के अंदर कुछ अजीब-सा था। वह किसी कार की आकृति लग रही थी।

 



शक होने पर उसने यह तस्वीर स्थानीय लोगों को दिखाई। फिर अधिकारियों को खबर दी गई। पुलिस मौके पर पहुँची और गोताखोरों की मदद से उस तालाब से एक पुरानी कार को बाहर निकाला गया। कार के भीतर मानव अवशेष मिले। जब डीएनए परीक्षण हुआ, तो सच्चाई सामने आई — वो विलियम मोल्ड की ही लाश थी।

 

वो तालाब, जो कभी सुनसान था। जिस तालाब में कार मिली, वह एक रिहायशी इलाक़े के पीछे था। लेकिन जब मोल्ड गायब हुआ था, उस समय वहाँ कोई कॉलोनी नहीं बनी थी। यानी वह इलाका सुनसान और विकास से दूर था। समय के साथ वहाँ मकान बन गए, सड़कें आ गईं, पर तालाब वहीं का वहीं रहा — और उसके भीतर दफन था एक लापता आदमी का राज।

 

गूगल अर्थ की तस्वीरों में 'वो कार' सालों से दिख रही थी

 

सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि वो कार, जिसमें मोल्ड की लाश मिली, गूगल अर्थ की सैटेलाइट इमेज में कई सालों से दिखाई दे रही थी। लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया। न कोई ज़ूम इन किया, न किसी को शक हुआ — जब तक कि वो एक व्यक्ति यूँ ही नज़ारे देखने नहीं बैठा।

 

एक अनजाने क्लिक ने 22 साल का रहस्य सुलझा दिया

कभी-कभी एक छोटी-सी नज़र, एक छोटी-सी खोज, एक गूगल अर्थ पर किया गया ज़ूम — वो कर दिखाता है जो सालों की पुलिस जांच नहीं कर पाती। विलियम मोल्ड का परिवार आज जवाबों के साथ जी सकता है, लेकिन यह कहानी हमें यह भी बताती है कि कितने रहस्य हमारे आसपास ही छिपे होते हैं — बस उन्हें देखने वाली नज़र चाहिए।


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उक्त जानकारी फेसबुक की एक पोस्ट से ज्यों की त्यों कॉपी है. इसे इस लिंक पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है.